आश्रम से बाहर के लोगों के साथ सम्बन्ध

 

साधक को क्या होना चाहिये इसके बारे में मैं तुम्हारे भावों की कद्र करती हूं और उस दृष्टिकोण से, तुम जो कहते हो वह बिलकुल सच है । लेकिन यह भली- भांति जानी हुई बात है कि आश्रम मै केवल साधक ही नहीं हैं । आश्रम जीवन का एक लघु आकार हैं जिसमें योगाभ्यास करने वाले संख्या में कम हैं, और अगर मैं यहां सिर्फ उन्हीं को रखूं जो अपनी साधना में बिलकुल सच्चे और निष्कपट हैं, तो वस्तुत:, बहुत कम ही रह जायेंगे ।

 

   श्रीअरविन्द हमेशा हमें इस तथ्य की याद दिलाते हैं कि भगवान् हर जगह हैं और हर चीज में हैं, और हम सभी सें करुणा का अभ्यास करने को कहते हैं । यह बात बड़े हो सुन्दर ढंग से उस सूत्र में कही गयी हैं जिस पर मैं अभी- अभी टिप्पणी कर रही थी : '' अपने- आपको निर्दय होकर जांच, तब तुम औरों के प्रति अधिक उदार और दयालु होओगे । ''

 

   और इस संदर्भ में मैं तुमसे कहती हूं कि ' ' को आने और अपनी मां से मिलने दो । वह उससे बहुत अधिक प्रेम करती है और अगर उसे बेटे के साथ मिलने से वंचित किया गया तो वह बहुत दुःखी होगी ।

 

   रही बात उसके काम की, तो यह मेरे और उसके बीच की बात है, और मैं जानती हूं कि हम कोई संतोषजनक व्यवस्था कर सकेंगे ।

 

  तो मैं फिर से तुम्हें शांत रहने और ' भगवान् की कृपा ' और ' बुद्धिमत्ता ' पर विश्वास रखने के लिए कहने को बाधित हूं।

 

२६ जनवरी, १९६२

 

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हृदय और भावों का सामीप्य शरीरों के सामीप्य की अपेक्षा बहुत ज्यादा प्रबल और सच्चा होता है ।

 

  अपनी मां से सच्चा प्रेम करो और यह जानते हुए कि धरती छोटी है और प्रेम विशाल, बिना दुःख या कष्ट के उसे अमरीका जाने दो ।

 

२२ जुलाई, १९६८

 

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मेरे प्यारे बालक

 

   निश्चय ही हम तुम्हारे सच्चे माता-पिता हैं, और तुम्हारा सच्चा कर्तव्य भगवान् के प्रति हैं ।

 

   अज्ञानियों को अपने अज्ञान के अनुसार कहने दो और तुम अपने अन्दर ' भागवत चेतना ' का प्रकाश, ज्ञान और शांति बनाये रखो ।

 

    हमारे प्रेम और आशीर्वाद-सहित ।

 

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मुझे खुशी हैं कि तुम इस सारे '' नाटक '' को उसी तरह ले रहे हो जैसे उसे लेना चाहिये, यानी अच्छी तरह हंसते हुए ।

 

   लोग तुम्हें '' शरणार्थी '' कहते हैं लेकिन भगवान् का शरणार्थी होना और उनकी शरण और उनके प्रेम का आनन्द लेना एक बहुत ही भव्य बात हैं...

 

   अगर उन्हें मजा आता है तो उन्हें '' भागवत जीवन '' में श्रद्धा के अभाव का प्रदर्शन करने के लिए लिखने दो, हम उससे प्रभावित नहीं हो सकते । '

 

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 श्रीअरविन्द कहते हैं :

 

  ज्यादा अच्छा यह है कि अपने भूतकाल को बिलकुल पीछे छोड़ दो और टूटे हुए सम्बन्धों को फिर से न जोड़ ।

चिट्ठी न लिखना और तार न देना ज्यादा अच्छा होगा ।

 

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दर्शनार्थियों और विदेशियों के साथ (और आपस में भी) व्यवहार करते समय आश्रमवासियों को एक अच्छी सलाह :

 

   '' जब तुम्हारे पास आश्रम की किसी चीज या किसी व्यक्ति के बारे में कहने के लिए कोई अच्छी चीज न हो, तो चुप रहो ।

 

   '' तुम्हें यह जानना चाहिये कि यह मौन भगवान् के काम के प्रति वफादारी है । ''

 

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मैं पत्रिका के ' ' द्वारा प्रस्तावित व्यक्तियों के लेख मांगने की सोच रहा हू लोइकन पता ' श्रीअरविन्द के प्रति उनका क्या रुख है ! ' ' कहता कि बे कुशल लेखक ' और ' श्री की ' का अच्छा अध्ययन किया और बे हमारी पत्रिका के लिख सकेंगे ! लकिन मेरा अनुभाव है कि अगर ये लोग उदारमना और प्रगतिशील हों तो कभी-कभी  श्रीअरविन्द के बारे मे एक नये से लिखते ' लेख बहुत मजेदार होती है ! लेकिन अधिकतर ये श्रीअरविन्द का एल्यांकन अपने ' प्रतिबन्धित से करते है !

अत: मै इस मामले मे आपसे मार्ग- चाहता हूं ।

 

ऐसे लोगों से कुछ न मांगो ' तुम ' जानते जिनके मन के बारे में तुम्हें भरोसा नहीं है ।

 

   मैंने जो कहा है यह उन सबके लिए हैं ।

 

२२ अक्तूबर, १९६५

 

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 माताजी नये पत्र मे श्रीअरविन्द ने धरती के  लिए नये चेतना उतारने के अपने काम करने के से कम करने और अपने- आपको सामान्य जीवन से अलग के लिखा है

 

   यह पत्र ११३३ में लिखा गया था लोइकन अब से सब प्रकार के लोगों को आश्रम में के साध आने दिया जाता, आश्रम के साधक भी उनके साथ खुलकर मिलते है ! क्या इसका कारण यह कि अब हमारा काम एक नये स्तर तक जा पहुंचा ' के साध ये के प्रतिलब्ध जरूरी नहीं रहे ? क्या आप कृपा करके इस विषय पर प्रकाश डालेंगी ?

 

( श्रीअरविन्द से प्रश्न)

 

  '' सभी सत्ताओं ये स्थित भगवान् का 'प्रेम ' और सभी चीजों ये

 

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   उनकी क्रिया को निरन्तर मानना '' ' - अगर भगवान् को पाने ' सबमें के तरीकों मे ले यह धी एक, तो यहां के लोगों से सम्पर्क रखने पर प्रतिबन्ध क्यों है ? हम अपना प्रेम सबको क्यों ' सकते ?

 

(श्रीअरविन्द का उत्तर)

 

साधारण कर्मयोग के यह जिसका विश्वात्मा के साध, जो अधिमानस से रह जाता -लोइकन यहां एक विशेष कार्य करना केवल अपने लिए धरती के एक यहां जगत् से अलग खड़ा जरूरी ताकि हम अपने- आपको नयी चेतना को यहां उतारने के, सामान्य चेतना से अलग कर सकें ।

 

   ऐसे बात ' कि सबके प्रेम साधना का अंग ', लोइकन उसे अपने- आपको तुरंत सबके साध मिलने- ये ' बदल लेना -वह अपने- आपको एक साधारण व्यापक रूप मे प्रकट कर सकता ओर जब जरूरत तो क्रियाशील बिम्ब सद्भावना मे प्रकट सकता, परंतु बाकी के बचे प्रेम को उच्चतर चेतना को लाने पर उसके प्रभाव को प्रकट करने के परिश्रम मे प्रकट बात सभी चीजों मे भागवत कार्य-प्रणाली को करने की तो यह यहां भी -इस अर्ध मे कि अपने संघर्षों ' के पीछे उसे, लोइकन मनुष्य जगत् की, वह जिस रूप मे उसमें न स्वीकार करे - हमारा उस अधिक भागवत प्रक्रिया ओर गति करना जो है उसके स्थान पर एक अधिक. और अधिक सुखद अभिव्यक्ति को लायेगी ! यह भी भागवत 'प्रेम ' का श्रम है

 

२२ अक्तुबर, १९३३

 

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श्रीअरविन्द-'श्रीअरविन्द के पत्र', खण्ड २३ ।

श्रीअरविन्द-'श्रीअरविन्द के पत्र', खण्ड २३ ।
 

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श्रीअरविन्द ने जो लिखा है वह पूर्णतया सत्य है और उसका अनुसरण करना चाहिये ।

 

  केवल एक नया तथ्य है-इस वर्ष के आरंभ से एक नयी चेतना अभिव्यक्त हुई है और वह बड़े ज़ोरों से धरती को नूतन सृष्टि के लिए तैयार करने के काम में लगीं हुई है ।

 

१७ अप्रैल,१९६७

 

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  श्रीअरविन्द की शताब्दी के अवसर पर बहुत- से लोग आश्रम आयेंगे? हम उन्हें आश्रम की वास्तविकता दिखाने के क्या कर सकते है ?

 

उसे जियो । इस वास्तविकता को जियो । बाकी सब-बोलना, आदि- किसी काम के नहीं ।

 

   अपने-आपको उसके कैसे तैयार करें?

 

 चैत्य सत्ता के साथ सम्पर्क दुरा, जो हमारे अन्दर गहराई में अवतरित भगवान् हैं, और

 

तीव्र अभीप्सा,

पूर्ण एकाग्रता,

निरन्तर समर्पण दुरा ।

 

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